संघर्ष – निष्कर्ष

बूढ़े माथे की लकीरों मे
हैं छिपे सदियों के सिलसिले
होते थे युद्ध घमासान जहां
वीरान पड़े हैं आज वो किले

हैं डूब रही दोनों ही आँखे
खोजतीं, कोई किनारा तो मिले
कदम लड़खड़ाते, हाथ पसारते
ढूँढ़ते, कोई सहारा तो मिले

बीते युग, बिन मुस्कुराए
हुए बरसों चहरे को खिले
व्याकुल मन, होने को प्रसन्न
उपयुक्त कोई संदर्भ तो मिले

संघर्ष से भरी भूमिका के
मिलने उसे लगे हैं सिले
है आत्मा गहन घायल पड़ी
और पाँव नितांत गंभीर छिले

<<  छल का शिकार आख़िर क्या चाहिए?  >>
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मेरी रचनाएँ...
प्रवर्द्धित विप्रलंभ
Valentine’s Day – दो टूक!
दुरभिसन्धि
आख़िर क्या चाहिए?
संघर्ष – निष्कर्ष
छल का शिकार
बारिश और अतीत
भय संग्राम
वो चेहरा
सभ्यता की मै कठपुतली
दर्द
कारण क्यों?
नव वर्ष

बारिश और अतीत

होती जब है ज़ोर से बारिश
है उठती मिट्टी की गंध
दौड़ आतीं बचपन की यादें
वर्तमान हो जाता मंद

है बारिश का अतीत से
कुछ तो गहरा ही संबंध
बीता वो हर पल करे
भविष्य प्रेरणा का प्रबंध

बेफिक्री का रस पीकर
निश्चिंत होकर भीगना
अभिव्यक्ति का एक ही उपाय
गला फाड़कर चीखना

सहसा पर क्या यह हुआ
ठहर गया अंदर का तेज
है क्या बदला तब से अब तक
हुआ उत्साह से ही परहेज

भावनाओं को दे लगाम
हर्ष को कर के सीमाबद्ध
खर्चे श्वास अंधा धुन्ध
योजना कर दी खुशी की रद्द

करना प्यार नमी से ही है
आँसू क्यों, बारिश ही चुनू
पुनः बनू बालक मै सरल
पुनः मै अपनी चीख सुनू
<<  भय संग्राम छल का शिकार  >>
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