संघर्ष – निष्कर्ष

बूढ़े माथे की लकीरों मे
हैं छिपे सदियों के सिलसिले
होते थे युद्ध घमासान जहां
वीरान पड़े हैं आज वो किले

हैं डूब रही दोनों ही आँखे
खोजतीं, कोई किनारा तो मिले
कदम लड़खड़ाते, हाथ पसारते
ढूँढ़ते, कोई सहारा तो मिले

बीते युग, बिन मुस्कुराए
हुए बरसों चहरे को खिले
व्याकुल मन, होने को प्रसन्न
उपयुक्त कोई संदर्भ तो मिले

संघर्ष से भरी भूमिका के
मिलने उसे लगे हैं सिले
है आत्मा गहन घायल पड़ी
और पाँव नितांत गंभीर छिले

<<  छल का शिकार आख़िर क्या चाहिए?  >>
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मेरी रचनाएँ...
प्रवर्द्धित विप्रलंभ
Valentine’s Day – दो टूक!
दुरभिसन्धि
आख़िर क्या चाहिए?
संघर्ष – निष्कर्ष
छल का शिकार
बारिश और अतीत
भय संग्राम
वो चेहरा
सभ्यता की मै कठपुतली
दर्द
कारण क्यों?
नव वर्ष

सभ्यता की मै कठपुतली

जब खुलीं आखें आकस्मात
उपलब्ध थीं दिशाएं निर्धारित
सुनिश्चित कर दिए लक्ष्य थे
परंपरागत बोध पर आधारित

उपहार वचनो के दिए जगत ने
जताया निश्चय इन रीतो का
जीवन ध्येय की होगी प्राप्ति
मनऊँगा उत्सव जीतों का

पड़ाव देते चुनोतियाँ अनेक
थे उपलब्ध भी निदान तुरंत
रखते थे व्यस्त मुझे निरंतर
सवाल विविध और हल अनंत

पर सहसा मेरी जागी चेतना
अंतर्मन को दिया झींझोड़
सभ्यता की मै कठपुतली
मेरे जैसे हुए करोड़

है प्रधान उदासी यहाँ
बिखरा हुआ मानव है
प्रथा परंपरा दोनो निर्बल
व्यवस्था कागज़ी नाव है

चेतना हो स्रोत पराक्रम का
देना बल स्वयं को होगा
विरुद्ध बह बहाव नदी के
लक्ष्य मिलेगा पूर्णा नीरोगा
<<  दर्द वो चेहरा  >>
victim
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