संघर्ष – निष्कर्ष

बूढ़े माथे की लकीरों मे
हैं छिपे सदियों के सिलसिले
होते थे युद्ध घमासान जहां
वीरान पड़े हैं आज वो किले

हैं डूब रही दोनों ही आँखे
खोजतीं, कोई किनारा तो मिले
कदम लड़खड़ाते, हाथ पसारते
ढूँढ़ते, कोई सहारा तो मिले

बीते युग, बिन मुस्कुराए
हुए बरसों चहरे को खिले
व्याकुल मन, होने को प्रसन्न
उपयुक्त कोई संदर्भ तो मिले

संघर्ष से भरी भूमिका के
मिलने उसे लगे हैं सिले
है आत्मा गहन घायल पड़ी
और पाँव नितांत गंभीर छिले

<<  छल का शिकार आख़िर क्या चाहिए?  >>
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संघर्ष – निष्कर्ष
छल का शिकार
बारिश और अतीत
भय संग्राम
वो चेहरा
सभ्यता की मै कठपुतली
दर्द
कारण क्यों?
नव वर्ष

छल का शिकार

कर के उस पर पूरा भरोसा
ले कर उसे विश्वास में
चल पड़ा था मै कुछ पाने
बेहतर जीवन की आस में

स्वभाविक आना चुनौतियों का था
कस ली मैने कमर थी
संकल्प तो मै कर ही चुका था
आने वाली एक सहर थी

साथ पर उसके कर निर्भर
किया सामना ललकार का
भरोसा जो उसने था दिलाया
प्यार का स्वीकार का

संघर्ष जब शिखर पर था
महसूस हुई इक तीव्र चुभन
धीमे धीमे बढ़ती थी पीड़ा
मुझपर हुआ था आक्रमण

मुह पलटकर पाया उसे
अबतक जिसका साथ था
आँखों मे लिए था जीत के लक्षण
लहू मै डूबा हाथ था

यथास्तिथि को परख कर
हुआ मुझे एहसास था
धराशाही करने का मुझे
मूल उसका यह प्रयास था
<<  बारिश और अतीत संघर्ष – निष्कर्ष  >>
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वो चेहरा
सभ्यता की मै कठपुतली
दर्द
कारण क्यों?
नव वर्ष

दर्द

ले तो लिया सीने मे दर्द
भर तो लिया आँखो मे पानी
पर जब आई रोने की बारी
तरसा नसीब एक कोने के लिए

जिस्म ही जिस्म मिले आस पास
दिल ना मिला ढूंडे मगर
ना ही कोई था व्याकुल यहाँ
इंसान भरपूर होने के लिए

उस भाव-हीन चेहरे को देख
टूटे कई अरमान थे मेरे
जुड़ा गया यह भार भी
पलकों को मेरी ढोने के लिए

जीवन के इस रूप से
है सीखा सबक मैने अभी
सुर्ख आँखें हैं काफ़ी नही
चैन की नींद सोने के लिए
<<  कारण क्यों? सभ्यता की मै कठपुतली  >>
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