आख़िर क्या चाहिए?


दौलत नहीं,
शोहरत नहीं,
ना ही “वाह” चाहिए,
     “कैसे हो”
     बस दो लफ़्ज़ों की
     परवाह चाहिए


चंदन की सी
ख़ुशबू
ख़ुशगवार चाहिए
     तेरी ओर से
     बहने वाली
     हवा चाहिए


इश्क़ में पूरी
होनी मेरी
चाह चाहिए
     ज़्यादा से ज़्यादा “तू”
     और कम से कम
     “खुदा” चाहिए


है सौदा दिलों का,
फिर सिक्का तो
खरा चाहिए
     तू ही तू मंजूर
     ना कोई तेरी
     तरह चाहिए

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