ले कर उसे विश्वास में
चल पड़ा था मै कुछ पाने
बेहतर जीवन की आस में
स्वभाविक आना चुनौतियों का था
कस ली मैने कमर थी
संकल्प तो मै कर ही चुका था
आने वाली एक सहर थी
साथ पर उसके कर निर्भर
किया सामना ललकार का
भरोसा जो उसने था दिलाया
प्यार का स्वीकार का
संघर्ष जब शिखर पर था
महसूस हुई इक तीव्र चुभन
धीमे धीमे बढ़ती थी पीड़ा
मुझपर हुआ था आक्रमण
मुह पलटकर पाया उसे
अबतक जिसका साथ था
आँखों मे लिए था जीत के लक्षण
लहू मै डूबा हाथ था
यथास्तिथि को परख कर
हुआ मुझे एहसास था
धराशाही करने का मुझे
मूल उसका यह प्रयास था
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This poem has affected me deeply…a similar kind of feeling prevails in my heart…