भय संग्राम

कभी गवा देने का डर
कभी ना प्राप्ति का अंदेशा
चकित और सहमा सा है
मेरा हर रोम मेरा हर रेशा

किसी जेष्ठ के ऊँचे आदेश
तो कभी जगत का बंदोबस्त
मर सा रहा है मेरा स्वयं
उमंगों का हो रहा है अस्त

है यह जगत की चालाकी
या मेरा ही दुर्बल निश्चय
कि रखता हर कदम डर के
नही वश मे मेरे, मेरा ही समय

जकड़ता मुझे विफलता का डर
पकड़ता मुझे तानो का असर
निपुणता की आस मे हूँ बैठा निकम्मा
अशुद्धि की रहे ना कोई कसर

है क्या मेरा अलग अस्तित्व?
हो क्या मेरा अनूठा गंतव्य?
दर्पण खड़ा लिए प्रश्न प्रबल
क्या है मेरे जीवन का लक्ष्य?

तोड़ दूँ बंधन मै समस्त
तो होगा क्या सरल व्यवहार?
हूँ पर विवश इस चिंतन से
यह भी डर का है विस्तार

बटोर के साहस खोजूं अब मै
जो है सार्थक भीतर मेरे
श्रेष्ठ हो जो मुझसे ही
जिसे हो नहीं कोई भय घेरे

रहा है व्यतीत हो मुझे धीरे धीरे
कदाचित भय नही कोई धोका
विजयी यदि होना है यताक्रम
इसे मानूं अवसर इसे मानूं मौका
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4 thoughts on “भय संग्राम

  1. hey, this is really impressive
    lets have a publication compiled
    as they have always said………….. talent can never be hidden for long, it surfaces at the right time
    best of luck
    maheshona

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