सभ्यता की मै कठपुतली

जब खुलीं आखें आकस्मात
उपलब्ध थीं दिशाएं निर्धारित
सुनिश्चित कर दिए लक्ष्य थे
परंपरागत बोध पर आधारित

उपहार वचनो के दिए जगत ने
जताया निश्चय इन रीतो का
जीवन ध्येय की होगी प्राप्ति
मनऊँगा उत्सव जीतों का

पड़ाव देते चुनोतियाँ अनेक
थे उपलब्ध भी निदान तुरंत
रखते थे व्यस्त मुझे निरंतर
सवाल विविध और हल अनंत

पर सहसा मेरी जागी चेतना
अंतर्मन को दिया झींझोड़
सभ्यता की मै कठपुतली
मेरे जैसे हुए करोड़

है प्रधान उदासी यहाँ
बिखरा हुआ मानव है
प्रथा परंपरा दोनो निर्बल
व्यवस्था कागज़ी नाव है

चेतना हो स्रोत पराक्रम का
देना बल स्वयं को होगा
विरुद्ध बह बहाव नदी के
लक्ष्य मिलेगा पूर्णा नीरोगा
<<  दर्द वो चेहरा  >>
victim
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